दास्तान-गो : जिनकी तारीफ़ में लफ़्ज़ न मिलें, लता मंगेशकर उनमें से एक हुईं

दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…
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जनाब, ये साल 2009 की बात है. टेलीविज़न के पर्दे पर दो अज़ीम फ़नकार नुमायां हुए थे उस रोज़. इनमें एक थे- शा’इर, नग़्मा-निगार जावेद अख़्तर साहब. और दूसरी उनके सामने थीं- लता मंगेशकर, जिनका उस रोज़ 80वां जन्मदिन (साल 1929 में इंदौर, मध्य प्रदेश में पैदा हुईं) था और आज 93वां है. जावेद साहब उस रोज़ लता जी का इंटरव्यू ले रहे थे. इसकी शुरुआत उन्होंने कुछ इस तरह की, ‘सदियों में एकाध बार ऐसा होता है कि कोई इंसान इतना बड़ा हो जाता है कि उसकी तारीफ़ नहीं की जाती. उसकी तारीफ़ इसलिए नहीं की जाती क्योंकि वह की नहीं जा सकती. ऐसे शब्द ही नहीं होते. और उसकी तारीफ़ करने की कोई ज़रूरत भी नहीं होती. कोई नहीं कहता है कि शेक्सपियर बहुत अच्छा राइटर था. कोई नहीं कहता है कि माइकल एंजिलो बहुत अच्छी स्टेच्यू बनाते थे. कोई नहीं कहता है कि बीथोवन क्या म्यूज़िक बनाते थे. कोई नहीं कहता है’.
फिर जावेद साहब आगे फ़रमाते हैं, ‘…उसी तरह से, मैं समझता हूं कि जिससे आज हम बात कर रहे हैं, जिससे आज हमें मिलने का सौभाग्य मिला है, उसका नाम ही उसकी तारीफ़ है. आप किसी इंसान की इससे ज़्यादा क्या तारीफ़ कर सकते हैं, किसी सिंगर की, कि आप कहें वह तो लता मंगेशकर है’. यक़ीनन जनाब, सही फरमाया जावेद साहब ने. लता मंगेशकर किसी तारीफ़ या त’आरुफ़ की मोहताज़ नहीं हैं. बल्कि होता तो सच में यूं ही है कि किसी गाने वाले से अगर कह दिया जाए कि वह लता जी तरह (सुरीला) गाता या गाती है, या फिर लता जी के नाम से मिलने वाला कोई अवॉर्ड उसे मिल जाए, तो वह ख़ुद पर ऊपर वाले की मेहर ही मानता है. आज भी, जब लता जी ज़िस्मानी तौर पर दुनिया में नहीं (6 फरवरी, 2022 को निधन) हैं, तब भी उनका यह रुतबा क़ायम है. बलंद है और सदियों तक ऐसा ही बना रहने वाला है. इसका भरोसा है सब को.
अब जनाब ऐसी शख़्सियत के बारे में क्या उन्हीं की ज़ुबानी कुछ सुनना बेहतर नहीं होगा. तो सुन लेते हैं, ‘हमारे घर में म्यूज़िक तो सारा दिन चलता था. पिता जी (दीनानाथ मंगेशकर जी) गाते थे. उनके पास सीखने के लिए लोग भी आते थे. उनकी ड्रामा कंपनी थी. उसके रिहर्सल वग़ैरा होते थे, तो गाने ज़्यादा होते थे. तो मैं हमेशा सुनती थी पर पिता जी के सामने नहीं गाती थी. मैंने क्या किया था, हमारे घर में किचेन जो था, बहुत बड़ा किचेन था. किचेन में एक बर्तन रखने का स्टैंड था. मैं उस पे चढ़ के बैठती थी. और मां (शेवंती जी) अगर कुछ बना रही होती थी, तो मैं उसको अपना गाना सुनाया करती थी. जोर-जोर से. पिता जी की कुछ बंदिशें या सहगल (केएल सहगल) साहब का गाना. क्योंकि मुझे सहगल साहब बहुत पसंद थे. तो मेरी मां कहती थी- मेरा सर मत खा, चली जा यहां से. तो मैं उसको सुनाया करती थी. इस तरह मेरा गाना था’.
‘पर क्या हुआ कि एक दिन मेरे पिता जी किसी को गाना सिखा रहे थे. शाम का वक़्त था. तो मेरे पिता जी ने कहा कि तुम ज़रा रियाज़ करो. मैं जा के आता हूं. तो वे निकल गए. उस वक़्त मैं गैलरी में खेल रही थी. मैं सुन रही थी. मुझे लगता है, मैं पांच साल की थी तब. तो वो गा रहा था. उसने जो शुरू किया, मुझे अच्छा नहीं लगा. मैं अंदर गई और उससे कहा कि ये अच्छा नहीं है. बाबा ऐसा नहीं गाते हैं. ऐसा गाते हैं. मैंने गा के बताया. मेरे पिता जी इतने में आ गए. उन्होंने बाहर से सुना. सुन के अंदर आए, तो मैं भागी वहां से. तो मेरे पिता जी ने मेरी मां को कहा कि घर में गवैया बैठा है और मैं बाहर क्यूं सिखा रहा हूं लोगों को. और दूसरे दिन सुबह छह बजे उन्होंने मुझे उठाया. कहने लगे- तानपूरा उठाओ और बैठो मेरे सामने. मैं तो बहुत छोटी थी तब. तो जो मैंने रात को उसको (पिताजी के शाग़िर्द को) सिखाई थी, वही उन्होंने स्टार्ट किया’.
‘मैं जब नौ साल की थी तो एक ऐसा वाक़ि’आ हुआ कि कुछ लोग मेरे पिता जी के पास आए. हम लोग सोलापुर में थे. वहां हमारी कंपनी थी. ड्रामा कंपनी और वहां उनके शोज़ होते थे, पिता जी के. तो मैं खेल रही थी, तभी उन्होंने आ के कहा- दीनानाथ साब हम लोग चाहते हैं कि आपका एक क्लासिकल प्रोग्राम इसी थिएटर में करें. तो बाबा ने कहा- ठीक है करो. तब उन लोगों के जाने के बाद मैं बाबा के पास गई. मैंने कहा- मैं आपके साथ गाना चाहती हूं. तो उन्होंने कहा- तू क्या गाएगी. तू तो इतनी सी है. तुझे आएगा भी नहीं समझाने में. मैंने कहा- मैं गाऊंगी ज़रूर. तो कहने लगे- कौन सा राग गाएगी? तो मैंने कहा- खंबावती गाऊंगी, जो आप सिखा रहे थे. तो कहने लगे- अच्छी बात है. तो रात को जो शो था हमारा, तो मेरे पिता जी ने कहा- तू पहले गा. तो मैं जा के गाने के लिए बैठी. गाया मैंने. लोगों को बहुत अच्छा लगा. फिर पिता जी आए और वो बैठे. मैं उनके पास बैठी रही. वे गा रहे थे, तो मैं उनकी गोद में सर रख के सो गई’.
‘मेरा पहला गाना रिकॉर्ड हुआ, (19)42 मार्च में. वो ऐसे हुआ कि मराठी पिक्चर थी, ‘किती हसाल’. और उसका म्यूज़िक जो कर रहे थे, उनका नाम सदाशिवराव नेवरेकर था. वो मेरे पिता जी के साथ ड्रामा में काम करते थे. तो वो आए. उन्होंने पिता जी से कहा- एक पिक्चर बन रही है. मैं उसमें म्यूज़िक कर रहा हूं. मैं चाहता हूं, तुम्हारी बेटी मेरी पिक्चर में गाए. तो मेरे पिता जी ने कहा- नहीं, मैं उसको सिनेमा-विनेमा में डालना नहीं चाहता हूं. मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता है, तो तुम ये बात भूल जाओ. तो उसने कहा- नहीं, नहीं, तुम्हें मेरी दोस्ती का वास्ता है. तुम एक गाना इस लड़की से मुझे गवाने दो. तो फिर मेरे पिता जी के कहा- अच्छा ठीक है. मैं गई, उनका गाना गाया. गाना रिकॉर्ड हो गया, पूना में. मैं उससे पहले क्लासिकल प्रोग्राम करती थी, पिता जी के साथ. तो उतना डर नहीं लगा. वसंत जोगलेकर उसके डायरेक्टर थे. उस ज़माने में सुवर्णलता कर के एक हीरोइन थीं. वो थीं वहां पे. गाना गा के मैं शाम को वहां से निकल आई. ये बात मार्च की है. अप्रैल में मेरे पिता जी की डैथ हुई. पिता जी की डैथ होने के बाद दूसरा कोई, मेरे पास ये नहीं था कि मैं घर में पैसे कैसे लाऊं. क्योंकि हम लोग चार बहनें, एक भाई. मैं ही सबसे बड़ी. मां बहुत ये हो गई थी, परेशान. तो मेरे पास मास्टर विनायक (अदाकारा नंदा के पिता) आए’.
‘मास्टर विनायक ने मुझसे कहा- तुम मेरी पिक्चर में काम करोगी क्या? वो मराठी में बहुत मशहूर थे. उनकी ‘ब्रह्मचारी’ पिक्चर बनी थी. वो, उस ज़माने बहुत चली थी. तो उसका नाम था, पिक्चर का, ‘पहिली मंगला-गौर’. तो उसमें मैंने उनको कहा- मैं काम करूंगी. पर उनका कुछ झगड़ा हुआ. मेरा कॉन्ट्रेक्ट साइन हुआ और उन्होंने छोड़ दी कंपनी. वे निकल गए. कोल्हापुर गए और उन्होंने अपनी ही कंपनी शुरू की. जाते वक़्त मुझे कहते गए कि ये पिक्चर तुम्हारी पूरी हो जाए तो तुम कोल्हापुर आ जाना. मेरे पास में, काम के लिए. मैंने कहा- ठीक है. तो तीन महीने लगे उस पिक्चर को. और 300 रुपए मिले मुझे. मैंने उसमें काम किया. दो-तीन गाने थे. और उस वक़्त गाना मेरा एक चला था. तो वहां से मैं कोल्हापुर आई. कोल्हापुर में मास्टर विनायक के यहां मैंने नौकरी की. ऐसे (19)47 तक तो मैं नौकर थी, ‘प्रफुल्ल पिक्चर्स’ (मास्टर विनायक की कंपनी) में’.
‘मास्टर विनायक राव की डैथ हुई, अगस्त में. आठ-10 दिन के बाद, हमारे एक कैमरामैन थे. तो वो आए. उनका नाम था पापा बुलबुले. तो उन्होंने कहा- लता एक म्यूज़िक डायरेक्टर हैं. उनका नाम है- हरिश्चंद्र बाली. तो वो तुमसे गाना लेना चाहते हैं. पर तुमको सुनना चाहते हैं. तो मैंने कहा- चलिए. तो मैं उनकी मोटरसाइकिल पर बैठ के गई, सेंट्रल स्टूडियो. उन्होंने मुझे सुना और फिर कहा कि- मैं तुमसे गाने लूंगा. मैंने कहा- ठीक है. उनका मैं गाना रिकॉर्ड कर रही थी, तब वो सप्लायर होते हैं न, वो एक पठान था. उसने मुझे बाहर से सुना. उसने मास्टर ग़ुलाम हैदर साहब (मशहूर संगीतकार) को कहा- एक कोई नई लड़की आई है, तो उसको आप बुलाइए. मुझे मैसेज आया. तो मैं फिल्मिस्तान गई. गोरेगांव. मैं और मेरी मौसी की लड़की थी, मेरी बहन. हम लोग बैठे रहे. उनका रिकॉर्डिंग चल रहा था. कुछ तीन बज गए, चार बज गए, हम लोग बाहर बैठे हुए हैं’.
‘तो पांच बजे मास्टर जी बाहर आए. उनका बहुत नाम था. तो कहने लगे- वैरी सॉरी, रिकॉर्डिंग चलती रही. चलो, तुमको भी ज़रा सुन लें हम. वो ले गए मुझे थिएटर में. वो ख़ुद पियानो बहुत अच्छा बजाते थे. तो उन्होंने मेरा गाना सुना. तो मैंने उनका ही गाना सुनाया उनको पहले- ‘मैं तो ओढ़ूं गुलाबी चुनरिया’. ‘हुमायूं’ पिक्चर बनी थी. महबूब (फिल्मकार महबूब खान) साहब की. उसमें था गाना. वो बड़े ख़ुश हुए. फिर उन्होंने कहा- कोई और गाना सुनाओ. तब मैंने नूर जहां जी (गायिका, अदाकारा, जिनसे लता जी प्रभावित थीं) का एक गाना सुनाया. फिर पूछा- किससे सीख रही हो. मैंने कहा- अमानत खां साहब (मशहूर शास्त्रीय गायक) से. वो उनके दोस्त थे. कहने लगे- बहुत अच्छा है, सीखो और मैं तुमको गाना दूंगा. तो उन्होंने मुझे बुला के रिहर्सल करना शुरू किया. पर उससे पहले उन्होंने मेरी आवाज़ रिकॉर्ड की. और एस (शशधर) मुखर्जी साहब को सुनाई’.
‘उनकी (मुखर्जी साहब की, हैदर जिसमें संगीत दे रहे थे) पिक्चर बन रही थी. वो जिसमें यूसुफ़ भाई (दिलीप कुमार) और कामिनी थीं, ‘शहीद’. तो ‘शहीद’ का गाना था- ‘बदनाम न हो जाएं’ (जो रिकॉर्ड कर के ले गए). तो मेरी आवाज़ उन्होंने सुनी. और उनको कहा कि- ये आवाज़ चलेगी नहीं. मुखर्जी साहब ने कहा- बहुत पतली आवाज़ है. हमारी हीरोइनों को मैच नहीं करेगी. तो मास्टर जी को बड़ा गुस्सा आया. ग़ुलाम हैदर साहब को. कहने लगे- अच्छी बात है, ठीक है. और मुझे कहा- चलो मेरे साथ. मैं उनके साथ चल पड़ी. हम लोग पैदल स्टेशन पे गए. स्टेशन बहुत नज़दीक था, फिल्मिस्तान (मुखर्जी साहब का स्टूडियो) के. मैं, वो और मेरी बहन, खड़े थे हम लोग. उनके हाथ में 555 (सिगरेट) का डिब्बा था. उस पे ताल दे के उन्होंने कहा- ज़रा गाओ तो बेटा. मुझे उन्होंने गाना गाकर बताया- ‘दिल मेरा तोड़ा, हो मुझे कहीं का न छोड़ा’. तो वो गाया, मैंने साथ में गाया’.
‘कहने (हैदर साहब) लगे- बहुत अच्छे, यही मैं चाहता हूं, चलो. ले गए मुझे. और वहां जा के रिहर्सल शुरू किए और दो दिन के बाद रिकॉर्डिंग की. कहने लगे- इस पिक्चर में तुम हीरोइन के गाने गाओगी. और उसमें मुनव्वर सुल्ताना (अदाकारा) थी. उसकी आवाज़ बहुत भारी थी. उसे मेरी आवाज़ शूट नहीं करती थी. कामिनी (कौशल) को कर सकती थी. फिर भी उन्होंने मेरे सब गाने लिए. और वो पिक्चर चली उस वक़्त. और मेरे गाने चले. वो जब गाने रिकॉर्ड हो रहे थे, तब अनिल बिस्वास (संगीतकार) जी ने मुझे सुना. उन्होंने बुलाया. खेमचंद जी (संगीतकार खेमचंद प्रकाश) ने सुना. उन्होंने बुलाया. और इस तरह सब के गानों में मेरा गाना शुरू हुआ’. जी जनाब, यही तो कह आए थे मास्टर ग़ुलाम हैदर गुस्से में, मुखर्जी साहब से- ‘एक दिन बड़े-बड़े फिल्म बनाने वाले, संगीतकार, इस लड़की के पैरों पर गिरकर इससे अपनी फिल्मों में गाने की गुज़ारिश करेंगे’. और सोलह आने सच हुई उनकी यह भविष्यवाणी. इसीलिए तो जावेद साहब ने कहा था- लता ख़ुद में ही त’आरुफ़ है, तारीफ़ है.
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FIRST PUBLISHED : September 28, 2022, 06:12 IST