कहानी उस गांव की, जो कारगिल की जंग में जवानों संग कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा रहा

द्रास के मश्को वैली (Mushkoh Valley) के मश्को गांव की सड़कों पर घूमते और लोगों से बात करते यार मोहम्मद खान. उम्र 60 के पार है. उम्र का तकाजा भी है. लेकिन ये आज से 22 साल पहले भारतीय सेना के साथ मिलकर करगिल की लड़ाई में शामिल हुए थे. मश्को वैली में कारगिल की ज़बरदस्त लड़ाई लड़ी गई.
न्यूज़18 इंडिया की टीम द्रास के मश्को घाटी में उस गांव में गई और उन हीरो की तलाश की जो कि 22 साल पहले पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब देने के लिए भारतीय सेना के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रहे थे. 22 साल पहले की याद करते हुए यार मोहम्मद खान के सामने पूरा मंज़र आ गया. भारतीय सेना के लिए दिन रात अपने घोड़ों और खच्चरों के जरिए रसद , गोला-बारूद और हथियारों को उन जगह तक पहुंचाया जहां भारतीय सेना पाकिस्तानी सेना से लड़ रही थी. वह घायल भारतीय जवानों को भी नीचे तक लेकर आए थे.
यार मोहम्मद के मुताबिक वह सेना के साथ टाइगर हिल तक गए थे. उस वक्त दिन रात लगातार सेना के लिए रसद और गोला-बारूद उप पोस्ट पर ले जाने के लिए इस गांव का हर नौजवान लगा हुआ था. घर की महिलाओं और बच्चों को पहले ही गांव से बाहर सुरक्षित जगहों पर भेज दिया गया था. दिनभर ज़बरदस्त गोले पाकिस्तान की तरफ से दागे जाते थे और सारी चढ़ाई रात के अंधेरे में ही की जाती थी. इस गांव में उस वक़्त मौजूद सारे युवाओं को सेना में मदद के लिए बुलाया गया था और हर किसी ने सेना के साथ मिलकर पाकिस्तान की फौज को द्रास के इलाके से मार भगाया.
द्रास एक ऐसी जगह थी, जहां पर पाकिस्तान की सेना ऊंचे पोस्ट से एनएच अल्फ़ा पर ज़बरदस्त गोलीबारी कर रही थी. साथ ही जब भारतीय सेना टाइगर हिल , बत्रा टॉप को जीतने के लिए अपनी नफ्री को मश्को वैली में बढ़ा रही थी तो ऊपर बैठे पाकिस्तान की मोर्टार पोस्ट से जमकर गोलाबारी मश्को गांव पर की जा रही थी.
न्यूज18 को एक और शख़्स मिला जिसकी उम्र करगिल की जंग के दौरान महज 18 साल थी. उस शख़्स का नाम है शब्बीर अहमद. शब्बीर ने बताया कि जिस वक़्त पहला पाकिस्तानी गोला उनके गांव के एक घर पर गिरा उसके बाद से ही सभी दहशत में थे. सबको ये लगने लगा कि अब इस गांव में कोई नहीं बचने वाला. लेकिन भारतीय सेना के आने के बाद से उनका डर खत्म हो गया था. वो भी अपने खच्चरों के साथ तीन महीने तक लगातार मश्को की ऊंची चोटी पर जाते रहे.
ऐसा नहीं है कि सिर्फ द्रास के मश्को गांव के लोगों ने ही सेना की मदद की. पहली बार बटालिक सेक्टर में भी पाकिस्तानी घुसपैठियों को ताशी नामग्याल नाम के गढरिये ने ही देखा था और फिर सेना को सूचित किया था. इसी की तर्ज़ पर मश्को और तोलोलिंग के इलाके में भी पाकिस्तानियों के होने की सूचना भी स्थानीय लोगों ने ही दी थी. द्रास से लेकर बटालिक तक के इलाके में एलओसी के पास जितने भी गांव थे और जहां से भी भारतीय सेना ने दुश्मन पर चढ़ाई की थी वहां के स्थानीय लोगों के साथ ने सेना के कंधों को मज़बूत किया.
खुद मश्को वैली में प्वाइंट 4175 के फ़्लैट टॉप को जीतने वाले 13 जम्मू कश्मीर रायफल के सूबेदार संजय कुमार, जिन्हें युद्ध में उनकी वीरता के परमवीर चक्र समान से नवाज़ा गया, वो भी मानते हैं कि पोर्टरों ने जिस तरह से मदद की उसकी वजह से ही भारतीय सेना बड़ी आसानी से युद्ध को जीत सकी. वहीं टाइगर हिल को जीतने वाले लेंफ्टिनेंट योगेन्द्र यादव ने भी बताया कि जंग में हर किसी का अपना अपना किरदार था और सभी ने अपना किरदार बहुत ही बख़ूबी निभाया और वो इसके लिये पोर्टरों के तहेदिल से शुक्रगुज़ार हैं.
लड़ाई के दौरान ही इस बात का एहसास हो गया था कि विषम परिस्थितियों में इतनी ऊंचाई पर लड़ना किसी चुनौती से कम नहीं. देश के अलग अलग इलाके से सेना को कारगिल में मूव किया गया था. मैप जरूर था लेकिन उन पोस्ट पर पहुंचने का कोई रास्ता उसमें नहीं था. ऐसे में स्थानीय लोगों ने ज़िम्मेदारी उठाई पहाड़ी इलाकों में दुश्मन की नज़रों से बचाकर सेना के लिए नए रास्ते तलाशने का काम किया तो वहीं वे पोर्टर बनकर हर वक़्त साथ रहे जब तक कि जंग खत्म नहीं हो गई. सही मायने में ये कहा जा सकता है कि बिना पोर्टर के जंग जीत पाना और भी मुश्किल हो जाता.
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