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Analysis: मायावती को उत्तर प्रदेश में है गठबंधन की सबसे ज्यादा जरूरत

नई दिल्ली. पंजाब (Punjab) में हाल ही में बड़ी सियासी घटना घटी. यहां बहुजन समाज पार्टी ने शिरोमणि अकाली दल (SAD) के साथ 2022 विधानसभा चुनाव के लिए गठबंधन किया है. मायावती (Mayawati) ने इस गठबंधन को भले ही ‘ऐतिहासिक’ करार दे दिया हो, लेकिन अपना राजनीतिक वजूद बचाने के लिए उन्हें चुनावी साथी की सबसे ज्यादा जरूरत अपने महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) में है. इतिहास यह भी बताता है कि छत्तीसगढ़ हो या हरियाणा, बसपा का एक गठबंधन पार्टी के तौर पर यूपी के बाहर प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा है.

साल 2019 में बसपा और समाजवादी पार्टी ने लोकसभा चुनाव साथ लड़ा था. हालांकि, उस दौरान इसे असफल गठबंधन कहा गया था, लेकिन यह सच है कि भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ किसी भी विपक्ष का किसी भी राज्य में (पंजाब के अलावा) सबसे अच्छा प्रदर्शन था. उस चुनाव में 2009 के बाद बसपा ने सबसे अच्छा प्रदर्शन करते हुए 10 सीटें जीती थीं. गठबंधन के खाते में 40 फीसदी वोट शेयर के साथ 15 सीटें आई थीं.

यह कहा जा सकता है कि 2019 का लोकसभा चुनाव इस बारे में था कि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनेंगे या नहीं. ऐसे में जब मायावती और अखिलेश ने मंच से यह कहा कि उनका गठबंधन देश को नया पीएम देगा, तो कई लोग उन पर भरोसा नहीं कर सके थे. वहीं, अगर 2022 में साझेदार के तौर पर अगर पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश और मायावती यह कहते कि गठबंधन राज्य को नया सीएम देगा, तो लोग उनकी बात को सुनते.

सपा ने की थी बसपा की मददहालांकि, मायावती ने लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद गठबंधन को एकतरफा तोड़ दिया था. यह बात भी सभी जानते हैं कि समाजवादी पार्टी ने बसपा को 10 सीटें जिताने के लिए अपने वोट ट्रांसफर करने में मदद की थी. दोनों पक्षों के बीच संबंध तल्ख हो गए थे और अखिलेश और मायावती ने यह कहा था कि वे दोबारा कभी भी साथ चुनाव नहीं लड़ेंगे.

2015 में बिहार में नीतीश कुमार की जद (यू) और लालू प्रसाद यादव की राजद जातिवाद के एक ताकतवर गठजोड़ के साथ उतरे थे. इसके चलते बीजेपी सफल नहीं हो सकी. यूपी में बीजेपी और सीएम योगी आदित्यनाथ को इस संभावना से ज्यादा और कुछ नहीं भाता कि सत्ता विरोधी लहर में वोट बंट सकते हैं.

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आंकड़े देते हैं बसपा के बुरे हाल की गवाही

गठबंधन टूटने के बाद से ही बसपा के हाल बिगड़ते गए. इसी बीच मायावती लगातार कई नेताओं को पार्टी से बर्खास्त करती रहीं. अब हाल ये हैं कि 2017 में जीतने वाले 19 विधायकों में से पार्टी के पास केवल 7 विधायक बचे हैं. इनमें से 11 को पार्टी प्रमुख ने बर्खास्त कर दिया और एक उपचुनाव में हार गया. हाल ही में लालजी वर्मा और राष्ट्रीय महासचिव राम अचल राजभर को पार्टी से निकाला गया है. ये दोनों विधायक थे. 2017 के बाद से बसपा ने पार्टी के चार राज्य प्रमुख और 2019 के बाद चार अलग-अलग नेता देखे हैं.

सहां तक कि बसपा को नसीमुद्दीन सिद्दीकी, स्वामी प्रसाद मौर्य और ब्रजेश पाठक को दूसरी पार्टी के हाथों गंवाना पड़ा. पार्टी ने शीर्ष स्तर पर नेताओं को खुश करने के लिए भी बड़े फेरबदल किए. पहले सांसद दानिश अली को सांसद रीतेश पांडेय से दोबारा बदले जाने से पहले वापस लाने के लिए लोकसभा नेता के तौर पर हटाया गया. राज्य अध्यक्ष मुनकाद अली को भी भीम राजभर के लिए हटाया गया था.

बसपा का इतिहास: गठबंधन में असफलताएं ज्यादा

2018 में छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी और बसपा के बीच गठबंधन ने 90 में से केवल 7 सीटें जीतीं. 2019 विधानसभा चुनाव के लिए बसपा ने हरियाणा में INLD के साथ हाथ मिलाया था. चुनाव से पहले इनेलो अलग हो गई और बसपा को एक भी सीट नहीं मिली. 2018 में ही राजस्थान में बसपा से जीत दर्ज करने वाले 6 विधायकों ने कांग्रेस का दामन थाम लिया था.

अब आगे क्या

बीएसपी के लिए उत्तर प्रदेश में ही उम्मीद नजर आती है. यहां सपा से गठबंधन कर पार्टी की सियासी उपस्थिति बनी रह सकती है. राज्य में सत्ता बदलाव की स्थिति को देखते हुए दोनों पार्टियों को लगता है कि वे बीजेपी को खुद से ही हरा सकती हैं. ऐसा खासतौर से तब जब राष्ट्रीय चुनाव में अजेय दिख रही बीजेपी को राज्य के चुनाव में जोखिम है.

हालांकि, अभी भी राज्य के चुनाव में सपा-बसपा गठबंधन के प्रदर्शन को देखा जाना बाकी है. अपने जाति आधारित वोट आधार को दोबारा मिलाने के लिए ताकत को फिर से तैयार करना शायद 2022 में सपा-बसपा को एकमात्र मौका दे सकता है. लेकिन सवाल यह है कि क्या मायावती, अखिलेश तक पहुंचेंगी? ऐसा इसलिए नहीं होने वाला क्योंकि मायावती और अखिलेश दोनों खुद को सीएम के चेहरे के रूप में देखते हैं. जब सीएम की कुर्सी की बात आती है, तो बुआ-भतीजे का रिश्ता भी बेअसर हो जाता है.

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