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जब स्टूडेंट्स के लिए तय हुआ 1 रुपए 60 पैसे का टिकट…! आज भी सस्ता सिनेमा देखना चाहते हैं लोग

मध्य भारत हिंदी फिल्मों का बड़ा कद्रदान रहा है. देश के अन्य हिस्सों में क्षेत्रीय भाषा के सिनेमा के प्रयोग हुए लेकिन विदर्भ, मध्यभारत, महाकौशल, मालवा-निमाड़ और पूर्व गुजरात, राजस्थान के हिस्सों में हिंदी फिल्मों का ही बोलबाला रहा. जाहिर है फिल्म निर्माताओं के साथ ही डायरेक्टर, एक्टर, एक्ट्रेस और अन्य कलाकारों की चिंता रहती है कि यहां फिल्म का क्या रिस्पॉन्स रहा. इस क्षेत्र के सिनेमा कारोबारियों की संस्था है सेंट्रल सिने सर्किट एसोसिएशन. जमाने से हिंदी फिल्में रिलीज होतीं तो यहां का रुझान सबसे पहले लिया जाता. एसोसिएशन के डायरेक्टर और फिल्मकार ओपी गोयल ने टिकट के सफर की बात करने पर सुनहरी यादों का पिटारा खोल दिया.

ओपी गोयल बताते हैं- ‘साइलेंट मूवी के दौर में एक आने से ही शुरुआत हुई. मुझे याद है इंदौर के नंदलालपुरा थाटिया टाकीज में सेल्यूलाइड पर मूक फिल्में दिखाई जाती थीं. उस दौर में प्रोजेक्टर की रील को हाथ से घुमाया जाता था. 1953-54 की है जब मैंने सिनेमा देखना शुरू किया था. तब एक आना का टिकट हुआ करता था. यह दौर चला 1957 तक. 1957 में 14 फरवरी को मदर इंडिया रिलीज हुई, तब तक टिकट की दर दो आना हो चुकी थी. इसके बाद फिल्मों के टिकट के रेट चार आना यानी 25 पैसे हुए. इसके बाद छह आना, आठ आना हुए. धीरे-धीरे जैसे-जैसे महंगाई बढ़ी, सिनेमा का टिकट रेट बढ़ता गया.’

सस्ते सिनेमा का पसंदीदा दौर
सिंगल स्क्रीन का जमाना 80 का वह दशक था, जब टेलीविजन ने दस्तक नहीं दी थी. उस दौर में मनोरंजन के एकमात्र सस्ते और सुलभ साधन सिनेमा ने लोगों को दिलों में अपनी जगह पक्की कर ली थी. उसके पहले 1975 के आसपास से ही लगभग 5 से 10 रुपए महीने तन्ख्वाह पाने वाले वर्ग ने भी सिनेमा पर कुछ रकम खर्च करना शुरू कर दिया था. परिवार का एक सदस्य तो हर महीने सिनेमा देखने जाता ही था. शौक इस कदर था कि लोग टिकट के लिए 50 बार लाइन में लगते. गोयल बताते हैं कि ‘सेंट्रल इंडिया में 1 रुपए 60 पैसे का टिकट सबसे लोकप्रियता रहा. दो और ढाई रुपए पर सरकारों ने स्टूडेंट कन्सेशन दिया तो उन्हें टिकट 1.60 रुपए में मिल जाता था. वे 50 से 100 के झुंड में टॉकीज जाते और सीटें फुल हो जातीं. ऐसे में परिवार के लोगों को टिकट नहीं मिल पाता. इसी मांग पर आम लोगों के लिए भी टिकट 1.60 पैसे किया गया. तब बालकनी सिटिंग का टिकट लगभग 5 रुपए का था. ’

एडवांस टिकट का भी जमाना था
वैसे तो ऑफलाइन टिकटिंग के दौर में एडवांस टिकट बहुत सीमित हो पाते थे. फिल्मों के जबरा फैन कहलाने वाले कमलेश रावत कहते हैं कि एडवांस टिकट नहीं होते थे, लेकिन कई फिल्मों के लिए एडवांस टिकट बेचे गए. इंदौर की राज टॉकीज में राजकपूर की ‘संगम’ फिल्म लगी तो सात दिन के एडवांस टिकट दिए गए. एडवांस टिकट के चार्ट बना दिए जाते थे. परिवार वालों को टिकट नहीं मिल पाने के कारण सिनेमाघर मालिकों ने एडवांस टिकट की व्यवस्था शुरू कराई. एडवांस टिकट नहीं मिलने के कारण लाइन में लगना ही एकमात्र विकल्प हुआ करता था. कई बार तो दो-दो दिन तक लाइन में लगने के बाद टिकट मिल पाता था. छोटे शहरों में टिकट नहीं मिल पाने के कारण लोग इंदौर, जबलपुर और भोपाल शहरों में सिनेमा देखने जाते थे. इसकी एक वजह यह भी थी कि यहां फिल्म रिलीजिंग-डे पर ही लग जाती थीं. इंदौर में एक समय 26 और जबलपुर में 38 सिनेमाघर हुआ करते थे. इनमें प्रेमनाथ की मशहूर एंपायर टॉकीज भी थी. मप्र में अब 125 मल्टप्लेक्स और लगभग 80 सिंगल स्क्रीन सिनेमाघर हैं.

टैक्स 150 फीसदी था, हर सीएम को घेरा
मनोरंजन का एकमात्र और लोकप्रिय साधन होने के बावजूद सेंट्रल इंडिया में मनोरंजन कर 150 फीसदी तक लिया गया. सेंट्रल सिने सर्किट एसोसिएशन ने तत्कालीन मुख्यमंत्री मोतीलाल वोरा, अर्जुन सिंह, श्यामाचरण शुक्ल, दिग्विजय सिंह से टैक्स घटाने के लिए कई बार बात की. सीएम जहां जाते टॉकीज वाले उन्हें घेर लेते. मप्र में जयंत मलैया के वित्त मंत्री बनने पर मनोरंजन कर 70 फीसदी से कम कर 50 फीसदी कर दिया गया. 2017 में यह दर 20 फीसदी था और सिंगल स्क्रीन सिनेमा में 100 रुपए के टिकट पर यह टैक्स माफ कर दिया गया था. 2018 से सिंगल स्क्रीन और मल्टीप्लेक्स सभी पर 28 फीसदी जीएसटी लगता है.

Tags: Entertainment Special, Entertainment Throwback

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