Up assembly election 2022 an interesting political history

नई दिल्ली. राजनीतिक रूप से देश का सबसे अहम राज्य उत्तर प्रदेश (UP). कितना अहम? जवाब कुछ तथ्यों और आंकड़ों से मिल सकता है. जैसे कि देश में अब तक हुए अधिकांश प्रधानमंत्रियों ने संसद में इसी राज्य का प्रतिनिधित्व किया है. यहां तक कि मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Prime Minister Narendra Modi) ने भी गुजरात (Gujarat) से आकर वाराणसी (Varanasi) होते हुए लोकसभा जाने का रास्ता चुना. वजह? उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) लोकसभा (Lok Sabha) में 80 और राज्यसभा (Rajya Sabha) में 31 सदस्य चुनकर भेजता है. यानी दोनों सदनों में कुल 111. जाहिर है, इतने अहम राज्य और उसकी आबादी को हर पार्टी साधकर रखने की जुगत में रहती है. इसमें उत्तर प्रदेश की 403 विधानसभा सीटों का चुनाव (UP Assembly Election) बेहद अहम पड़ाव होता है, जो आगामी 10 फरवरी से 7 मार्च के बीच 7 चरणों में होने वाला है. अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस ने इस बारे में एक विस्तृत रिपोर्ट छापी है.
ये चुनाव और 10 मार्च को आने वाला इसका नतीजा जितना दिलचस्प होने वाला है, उतना उत्तर प्रदेश का राजनीतिक इतिहास (Political History Of UP) भी है. सो, एक नजर उसी पर…
राजनीति में योगी का उभार (2017): बात 2017 की है, जब उत्तर प्रदेश की राजनीति (UP Politics) में योगी आदित्यनाथ (Yogi Adtityanath) का उभार हुआ. वे राज्य की गोरखपुर संसदीय सीट (Gorakhpur Loksabha) से सांसद होते थे. उस साल विधानसभा चुनाव में किसी को भारतीय जनता पार्टी (Bhartitya Janata Party) ने मुख्यमंत्री का चेहरा (CM Face) नहीं बनाया था. इसीलिए किसी ने सोचा नहीं था कि योगी मुख्यमंत्री (Chief Minister) बनेंगे. भाजपा ने जब उस चुनाव (UP Election-2017) में 312 सीटें जीतीं, तब भी नहीं. क्योंकि नाम अन्य नेताओं के चल रहे थे. लेकिन अचानक एक रोज आदित्यनाथ (Yogi Adtityanath) गोरखपुर के गोरक्ष मठ की महंत पीठ से उठकर लखनऊ आ पहुंचे. राज्य की सियासत की सबसे बड़ी ‘पीठ’ (Chief Minister Chair) संभालने के लिए. आज योगी केंद्र में बड़े विकल्प के तौर पर देखे जा रहे हैं.
अखिलेख की ताजपोशी (2012) : अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) को उनके पिता और समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) के मुखिया मुलायम सिंह यादव (Mulayam Singh Yadav) ने मुख्यमंत्री की कुर्सी (Chief Minister Chair) के लिए चुना. तब अखिलेश महज 38 साल के थे. सपा की छवि बाहुबलियों की पार्टी की बन गई थी. मुलायम सिंह अपने इंजीनियर बेटे अखिलेश को आगे कर पार्टी छवि बदलना चाहते थे. इसीलिए जब उस चुनाव (UP Election-2017) में सपा ने 224 सीटें जीतीं तो मुलायम सिंह ने मुख्यमंत्री की कुर्सी अखिलेश (Akhilesh) को सौंप दी. अखिलेश ने आपराधिक छवि वाले नेताओं की एंट्री एक हद तक रोक पार्टी में रोक दी. लेकिन उनकी अगुवाई में पार्टी पारिवारिक झगड़े की शिकार हो गई और 2017 में हार गई.
ब्राह्मण-दलित प्रयोग और मायावती की वापसी (2007): उत्तर प्रदेश की राजनीति (UP Politics) में ये दिलचस्प मोड़ था. इससे पहले राज्य की सियासत गठबंधन सरकारों, राष्ट्रपति शासन के कालखंडों में छिन्न-भिन्न सी नजर आ रही थी. लेकिन बहुजन समाज पार्टी (Bahujan Samaj Party) की मुखिया मायावती (Mayavati) इस इतिहास को झटके में बदल दिया. मायावती (Mayavati) ने दलित और ब्राह्मणों का जातीय गठजोड़ बनाकर विधानसभा की 206 सीटें जीतीं. पूरे पांच साल सरकार चलाई. हालांकि सबसे अधिक सुर्खियां हालांकि तब बनीं, जब उन्होंने प्रदेश के तमाम पार्कों में खुद अपनी और अपने राजनीतिक संरक्षक कांशीराम तथा पार्टी चुनाव चिह्न ‘हाथी’ की आदमकद मूर्तियां लगवाई. सो, अगला चुनाव हार गईं.
बसपा-भाजपा का झगड़ा और मुलायम की वापसी (2002) : प्रदेश में मार्च से मई 2002 के बीच राष्ट्रपति शासन (President Rule) रहा. फिर चुनाव हुए तो भाजपा (BJP) के समर्थन से मायावती (Mayavati) तीसरी बार मुख्यमंत्री बनीं. लेकिन दोनों पार्टियों की दोस्ती चली नहीं. इस झगड़े का फायदा मुलायम सिंह यादव (Mulayam Singh Yadav) ने उठाया. उन्होंने 2003 में बसपा के असंतुष्टों की मदद से सरकार बना ली, जो 2007 तक बाकी पूरे कार्यकाल तक चली.
कल्याण गए, राजनाथ आए (1999-02) : कल्याण सिंह (Kalyan Singh) ने 1997 में मुख्यमंत्री का पद संभाला था लेकिन 1999 में छोड़ना पड़ा. दरअसल, उनके नेतृत्व में भाजपा (BJP) ने 1998 में लोकसभा की 85 में 58 सीटें जीतीं. लेकिन जब 1999 में मध्यावधि चुनाव (MidTerm Election) हुए तो पार्टी को सिर्फ 29 सीटें ही मिल पाईं. इसके बाद उन्हें पद छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया गया. भाजपा ने पहले रामप्रकाश गुप्ता और फिर अक्टूबर 2000 में राजनाथ सिंह (Rajnath Singh) को मुख्यमंत्री बनाया. लेकिन राजनाथ करिश्मा नहीं कर पाए. भाजपा को 2002 के विधानसभा चुनाव (UP Assembly Election-2002) में सिर्फ 88 सीटें मिलीं.
रातों सरकार बर्खास्त और 24 घंटे के मुख्यमंत्री (1996-03) : भाजपा ने 1996 के विधानसभा चुनाव में 174 सीटें जीतीं. सरकार बनाने लायक बहुमत नहीं मिला. लिहाजा, पहले राष्ट्रपति शासन लगा. फिर अप्रैल-1997 में भाजपा ने बसपा की मदद से सरकार बनाई. छह-छह महीने दोनों पार्टियों के मुख्यमंत्री रहने थे. पहले मायावती ने कुर्सी संभाली. फिर जब कल्याण सिंह की बारी आई तो उनके मुख्यमंत्री बनने के कुछ समय बाद मायावती ने समर्थन वापस ले लिया. कल्याण सिंह ने सितंबर-1997 में कांग्रेस और बसपा के विधायक तोड़कर सरकार बचा ली. बीच में जब 21 फरवरी को 1998 को रातों-रात उनकी सरकार बर्खास्त कर दी गई, तब उन्होंने सुप्रीम कोर्ट की मदद से सरकार बचाई. इस बीच उत्तर प्रदेश को जगदंबिका पाल के रूप में 24 घंटे के मुख्यमंत्री भी मिले.
मायावती, पहली दलित मुख्यमंत्री और गेस्ट हाउस कांड (1993): मायावती ने भाजपा के सहयोग से पहली बार सरकार बनाई. राज्य की पहली दलित मुख्यमंत्री बनीं. हालांकि उन्होंने 1993 का चुनाव समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था. दोनों दलों की सरकार भी बनी. लेकिन मई-1995 में जब मायावती ने समर्थन वापस लिया तो उनके साथ सपा के बाहुबलियों ने सरकारी गेस्ट हाउस में बदसलूकी की. इसी घटना के बाद उन्होंने भाजपा के साथ मिलकर अपनी पहली सरकार बनाई.
राम-मंदिर और भाजपा (1991): ये दौर उत्तर प्रदेश की राजनीति (UP Politics) में भाजपा (BJP) की स्थापना का रहा. उसने कल्याण सिंह (लोध) को जातीय राजनीति के हिसाब राज्य में आगे किया. साथ ही राम मंदिर (Ram Mandir) को लंबी अवधि के मुद्दे (Long Term Issue) के रूप में स्थापित किया. रणनीति कारगर रही और उसने 221 सीटें जीतकर सरकार बनाई. कल्याण सिंह पहली बार मुख्यमंत्री बने. लेकिन 6 दिसंबर 1992 को बाबरी ढांचा ढहाए जाते ही इस बार की उनकी सरकार भी ढहा दी गई.
मंडल और मुलायम (1989) : इस समय तक उत्तर-प्रदेश में जातीय गुणाभाग (Social Engineering) का सिलसिला स्थापित हो चुका था. आरक्षण संबंधी सरोकारों और कार्रवाईयों के लिए चर्चित इस अवधि को ‘मंडल का दौर’ भी कहा जाता है. इसी दौर में जनता दल ने 1989 में मुलायम सिंह यादव को पहली बार मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंपी थी. दिलचस्प बात ये कि उनकी यह पहली सरकार भाजपा के समर्थन से बनी थी. यह राम मंदिर के मुद्दे का शुरुआती समय था. मुलायम की राह इस मसले से पूरी तरह अलग थी. इसलिए भाजपा ने उनकी सरकार से समर्थन वापस ले लिया. लेकिन कांग्रेस के सहयोग से मुलायम अपनी सरकार बचा ले गए.
चढ़ाव-उतार, 1951 से 1989 तक :
- कांग्रेस (Congress) 1951 से 1967 तक प्रदेश की राजनीति में जनताा के लिए इकलौता विकल्प रही. इस दौर की खास बात रही 1963 में सुचेता कृपलानी (Sucheta Kripalani) का मुख्यमंत्री बनना. वे उत्तर प्रदेश की पहली महिला मुख्यमंत्री (First Woman CM of UP) थीं.
- फिर 1967 के बाद 1977 तक गैर-कांग्रेसी सरकारों का दौर शुरू हुआ. साथ ही राजनीतिक उथल-पुथल का भी. पहले अप्रैल-1967 में संयुक्त विधायक दल (Samyukta Vidhayak Dal) के नेता के रूप में चौधरी चरण मुख्यमंत्री बने. एक साल से कम में उनकी सरकार चली गई. चुनाव हुए. कांग्रेस लौटी और चंद्रभानु गुप्ता 1969 में दूसरी बार मुख्यमंत्री बने. लेकिन वे भी साल पूरा नहीं कर पाए. कांग्रेस टूटी और 1970 में चरण सिंह में फिर मुख्यमंत्री बन गए. इस तरह तोड़-फोड़, जोड़-तोड़ का यह सिलसिला आगे फिर लंबा चलता रहा.
- 1977 से 1989 : आपातकाल का असर प्रदेश की राजनीति पर भी हुआ. केंद्र की तरह उत्तर प्रदेश में जनता पार्टी की सरकार बनी. थोड़े-थोड़े समय के लिए रामनरेश यादव और बनारसी दास मुख्यमंत्री बने. फिर इंदिरा गांधी की केंद्र सरकार में लौटी तो उन्होंने उत्तर प्रदेश से जनता पार्टी सरकार विदा कर दी. कांग्रेस राज्य की 1980 में राज्य की सत्ता में फिर लौटी और उसने 1989 तक 4 मुख्यमंत्री दिए. विश्वनाथ प्रताप सिंह, श्रीपति मिश्रा, नारायण दत्त तिवारी और फिर वीरबहादुर सिंह. (साभार : इंडियन एक्सप्रेस)
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