कोविशील्ड की दो डोज लेने के बाद 16% लोगों में डेल्टा वेरिएंट के खिलाफ नहीं मिली कोई एंटीबॉडी: ICMR स्टडी

नई दिल्ली. भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के एक नए अध्ययन से पता चला है कि कोविशील्ड वैक्सीन (Covishield) की दोनों खुराक और 58.1 प्रतिशत ऐसे लोग जिन्हें पहली खुराक दी गई है, के 16 प्रतिशत सीरम नमूनों में कोरोना वायरस के डेल्टा संस्करण (Coronavirus Delta Variant) के खिलाफ एंटीबॉडी नहीं पाई गईं. वहीं, कोविशील्ड वैक्सीन लेने वालों पर किए गए अध्ययन की अभी समीक्षा की जानी बाकी है. इस वैक्सीन का विकास ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय और ब्रिटेन-स्वीडन की कंपनी एस्ट्राजेनेका ने किया है और इसका निर्माण पुणे की कंपनी सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (एसआईआई) कर रही है.
हिंदुस्तान टाइम्स ने क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज-वेल्लोर में माइक्रोबायोलॉजी विभाग के पूर्व प्रमुख डॉ टी जैकब जॉन के हवाले से कहा, ‘अध्ययन में एंटीबॉडी के नहीं दिखने का मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि यह मौजूद नहीं है. दरअसल एंटीबॉडी को बेअसर करने का स्तर काफी कम हो सकता है और इसी वजह से इसका पता नहीं चला, लेकिन शरीर में यह अभी भी हो सकता है और संक्रमण व गंभीर बीमारी से व्यक्ति को बचा सकता है. इसके अलावा, सुरक्षात्मक प्रतिरक्षा (Protective Immunity) के तौर पर कुछ कोशिका भी होगी, जो संक्रमण और गंभीर बीमारी से बचा सकती है.’
कोरोना से उबरे लोगों को टीके की 1 डोज से ही डेल्टा वेरिएंट से मिलती है अधिक सुरक्षा: ICMR
अध्ययन में यह भी पाया गया कि न्यूट्रलाइज़िंग एंटीबॉडीज के टाइट्रेस जो विशेष रूप से Sars-CoV-2 वायरस को निशाना बनाते हैं और इसे नष्ट करते हैं या मानव कोशिकाओं में प्रवेश करने से रोकते हैं, भी बी1 वेरिएंट के मुकाबले डेल्टा वेरिएंट में कम थे. बता दें कि भारत में कोरोना की पहली लहर के लिए बी1 वेरिएंट को ही जिम्मेदार माना गया था.
बी1 वेरिएंट से तुलना करने पर पता चला कि जिन लोगों को एक डोज मिला उनमें डेल्टा वेरिएंट के खिलाफ 78 प्रतिशत कम न्यूट्रलाइज़िंग एंटीबॉडी टाइट्रेस थे, दो डोज लेने वालों में 69 प्रतिशत कम, वायरस से संक्रमित हुए और एक डोज लेने वालों में 66 प्रतिशत और उन लोगों में 38 प्रतिशत जिन्हें संक्रमण था और दोनों डोज लिए.