पंजाब में कांग्रेस सरकार की सबसे बड़ी दुश्मन क्या खुद कांग्रेस है?

चंडीगढ़. पंजाब में आठ महीनों के भीतर चुनाव होने वाले हैं, वहां सत्तारूढ़ कांग्रेस के सामने सबसे बड़ा राजनीतिक विरोध कांग्रेस हाई कमांड से ही है और मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के सामने सबसे बड़ा मुद्दा 2017 में किए चुनावी वादे को निभाना है. उन्होंने चुनाव में वादा किया था कि सत्ता में आते ही वो ताकतवर बादल परिवार को 2015 में हुए गुरु ग्रंथ साहिब के अपमान वाले मामले में सजा दिलवाएंगे. ये वो वादा था जिसने उन्हें सत्ता के सोपान पर चढ़ने में मदद की थी.
79 की उम्र में अमरिंदर सिंह का तीसरी बार मुख्यमंत्री बनना लगभग तय है. यही नहीं पंजाब का चुनाव, पार्टी के लिए 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले खेले जाने वाला प्रैक्टिस मैच होगा, जिसे जीतने पर ठंडी पड़ी पार्टी में एक नए उत्साह का संचार हो सकता है. किसान आंदोलन के समर्थन से भी पार्टी को अच्छा खासा लाभ मिला है और कैप्टन को किसान समुदाय का प्रिय बना दिया है. किसान पंजाब के चुनाव में कितनी अहमियत रखते हैं ये बात किसी से छिपी नहीं है.
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2017 चुनाव में शिअद को काफी नुकसान हुआ थावहीं इनके मुख्य विरोधी, शिरोमणी अकाली दल (शिअद) को नए किसान बिल की वजह से काफी नुकसान झेलना पड़ा है. जब ये बिल पारित हुआ उस वक्त शिअद, एनडीए सरकार के गठबंधन का हिस्सा थी. उसके बाद शिअद का एनडीए से अलग होना अपनी छवि सुधार का एक तरीका था. ऐसा अनुमान है कि गुरुग्रंथ साहिब पवित्र ग्रंथ मामले ने भी 2017 के चुनाव में शिअद को खासा नुकसान पहुंचाया था. आम आदमी पार्टी जो पिछले चुनाव में नंबर दो पार्टी बनकर उभरी है, उसकी छवि भी धूमिल पड़ती जा रही है क्योंकि उनके पास राज्य में कोई भरोसेमंद नेतृत्व नहीं है, वहीं भाजपा के पास भी ना के बराबर उम्मीद है.
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अमरिंदर सिंह के खिलाफ सिद्धू ने झंडा बुलंद कर रखा है
लेकिन कांग्रेस हाई कमांड यहां अपने घर की लड़ाई को सार्वजनिक मंच पर लाकर सारा मामला पेचीदा बना सकती है. सिंह को पिछले हफ्ते एक कमेटी के सामने पेश होना था. हाई कमांड ने इस समिति का निर्माण सिंह और नवजोत सिंह सिद्धु के बीच पड़ी खटास के बारे मे जानने के लिए किया था. सिद्धू ने पंजाब में अमरिंदर सिंह के खिलाफ झंडा बुलंद कर रखा है. उन्हें कांग्रेस से राज्य सभा सांसद प्रताप सिंह बाजवा और शमशेर सिंह दुल्लो का खुला समर्थन प्राप्त है, ये दोनों ही काफी लंबे वक्त से सिंह को निशाना बनाए हुए हैं.
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सिद्धू को मिलता आया है राहुल-प्रियंका का समर्थन
सिद्धू उस कहावत की तर्ज पर काम करते आए कि ‘जब सैंया भए कोतवाल तो फिर डर काहे का’, वैसे भी उन्हें गांधी भाई-बहन का भी समर्थन मिलता आया है और वह चुनाव से पहले राज्य का पार्टी अध्यक्ष की भूमिका में खुद को देखते आए हैं. लेकिन मुख्यमंत्री ने अपने खिलाफ इस साज़िश को सही वक्त पर भांप लिया और 2017 चुनाव से पहले पार्टी के प्रमुख बनने के बाद खुद को सीएम घोषित करने पर काम किया और सिद्धू के अरमान पर पानी फेर दिया. वहीं गांधी यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि सिद्धू को कैंपेन समिति में बड़ा रोल मिले, बावजूद इसके कि सिंह बार-बार कहते आए हैं कि असल तवज्जो वरिष्ठता को दी जाए,, न कि ऐसी प्रतिभा पर जिसे अभी तक आंका न गया हो.
सबसे बड़ा मुद्दा
वरिष्ठ राजनीतिक जानकारों का कहना है कि सिद्धू-कैप्टन के बीच कलह दरअसल छोटी बात है. आने वाले चुनाव में असल मुद्दा तो 2015 में हुए गुरु ग्रंथ साहिब के अपमान वाले मामले में उचित कार्रवाई का है. सिद्धू और बाजवा के खेमे के लोग इस बात पर भी सिंह को घेर रहे हैं कि पिछले साढ़े चार साल में बादल के खिलाफ कोई कदम नहीं उठाया गया है. सीएम को भी शायद यह एहसास हो गया है कि राजनीतिक वादे करना एक बात है और मामले को कानूनी तौर पर किसी नतीजे पर पहुंचाना अलग बात है. हालांकि उन्होंने कांग्रेस समिति को भरोसा दिया है कि चुनाव से पहले वह इस मामले में उचित कार्रवाई करेंगे.
सीएम कैंप के लोगों का मानना है कि लोग सरकार से नाराज़ नहीं हैं. सीएम के एक करीबी नेता कहते हैं – नगर निगम चुनाव में कांग्रेस की बड़ी जीत साफ करती है कि ताकतवर विपक्ष की गैर मौजूदगी में कांग्रेस को जनता का समर्थन मिल रहा है. कांग्रेस समिति से मुलाकात से पहले सिंह ने आप के तीन विधायकों को कांग्रेस में शामिल करके यह संदेश दे दिया कि राज्य चुनाव उनके नेतृत्व में जीतना आसान होगा. उन्होंने यह तक कह दिया कि सिद्धू, बाजवा जैसे नेताओं की लगाम खींचकर रखी जाए क्योंकि वही कांग्रेस के असल दुश्मन हैं. तो क्या कांग्रेस हाई कमांड सिंह की बात को कान देंगे?